Saturday, January 7, 2023

सत्ता, वर्चस्व और प्रतिरोध

सत्ता, वर्चस्व और प्रतिरोध के समेकित अन्तः क्रियाओं का नाम है | मानवीय सभ्यता की शुरुआत से ही सत्ता, मनोवृति के रूप में मानव व्यवहार श्रृंखला में शामिल हो गई है| आज के समय में अतिआवश्यक है कि इन समस्याओं की जड़ तक पहुंचा जाए क्यूंकि मनुष्य की समस्याओं का समाधान उसके व्यवहारों के अध्ययन से ही संभव है |  सत्ता एक मनोवृति है, जो मनुष्य के व्यवहार में परिलक्षित   असंख्य अलग-अलग इच्छाओं के जोड़ के कारण नहीं  परंतु असंख्य अलग-अलग हुए अनुभवों के कारण हुई | इसी कारणवश मनुष्य  स्वाभाविक रूप में सत्ता की लगातार इच्छा करता है | मनुष्य अपनी इसी वृति के कारण आजीवन संघर्ष और द्वन्द में जीता है | उसकी दो इच्छाएं हमेशा साथ-साथ चलती हैं | पहली स्थायित्व और दूसरा प्रभुत्व | स्थायित्व अगले चरण में प्रभुत्व में परिवर्तित होता जाता है | स्वच्छंदता मनुष्य की आदिम चेतना रही है | वह किसी भी प्रकार के बंधन से मुक्त रहना चाहते है परन्तु स्थायित्व और प्रभुत्व की इच्छा उसे दूसरों पर अपने वर्चस्व को स्थापित करने की प्रेरणा देता है | फलतः एक अनवरत चलने वाले संघर्ष की उत्त्पति होती है |  

चित्र श्रेय : bpac.in
चित्र श्रेय : bpac.in

वर्चस्व और प्रतिरोध के इसी द्वन्द्व पर प्राचीन इतिहासकारक व विश्लेषक अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं “आजतक का अस्तित्वमान समस्त समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है।" अर्थात सत्ता को यहाँ एक प्रकार के मानव सम्बन्ध के वर्णन से जोड़ा है | यही सत्ता और सत्ता-विमर्श का मूल है और यही मानवीय संबंधों की व्याख्या करने का सफल औजार है | कई इतिहासकारक सत्ता का स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं “सत्ता इसपर निरधारित है कि हम क्या हैं ? सत्ता मूलतः अस्तित्वमूलक शब्द है | यही अस्तित्व स्थायित्व पाकर वर्चस्व में परिणत हो जाता है |" फिर कहा गया है कि "सत्ता वह मूलभूत तत्व है जो संसार की प्रत्येक वस्तु में बराबर रूप से विद्यमान है |" अर्थात प्रत्येक व्यक्ति में सत्ता अस्तित्वमूलक प्रवृति में तो है ही साथ ही प्रत्येक मनुष्य में सत्ता वर्चस्व की आकांक्षा के रूप में भी पलती है | तात्पर्य यह कि वर्चस्व और प्रतिरोध दोनों साथ-साथ चलते और पलते हैं | प्रत्येक मनुष्य चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, वर्चस्व के प्रभाव से युक्त होता है | हालांकि हर मनुष्य का पूर्ण जीवन में अलग-अलग उद्देश्य  होता है, जो कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यक्तिपरक होता है परन्तु सामाजिक स्तर पर वह सांस्कृतिक वर्चस्व का हिस्सा होने से बच नहीं सकता, और जब तक कोई मनुष्य सामाजिक संरचना में शामिल है वह समाज में अन्तर्निहित सांस्कृतिक वर्चस्व को समझने में उसके प्रतिकार में असमर्थ है | हिन्दी का सत्ता विमर्श अंग्रेजी के पॉवर डिस्कोर्स का पर्याय है | पॉवर को हम शक्ति के रूप में समझते हैं परन्तु सामाजिक और राजनीति विज्ञान में इसे सत्ता कहा गया है | वहीं प्रतिरोध के सम्बन्ध में "प्रतिरोध की अवधारणा, एक गहरे अर्थ में, मनुष्य के साथ जन्मी और मनुष्य की अवधारणा से अनुभव जुड़ी प्रतीत होती है| मनुष्य अपनी परिभाषा में ही एक प्रतिरोधक-प्राणी प्रतीत होता है| अगर उसके द्वारा गढ़ी गई सभ्यता और संस्कृति का इस ख़ास दृष्टि से मूल्यांकन करें, तो उसकी इस रचनात्मकता के पूरे इतिहास को प्रतिरोध के इतिहास के रूप में देखा जा सकता है 


सत्ता विमर्श ही समाज के सारे विमर्शों का मूल है | समाज की मूल समस्या है वर्चस्व और प्रतिरोध कहें या शोषक और शोषित,  बात एक ही है | आप स्त्री विमर्श कहें,दलित विमर्श कहें या आदिवासी विमर्श, साहित्य में आप किसी न किसी वर्चस्ववादी प्रवृति के खिलाफ खड़े होते हैं | आज जैसे ही हम किसी भी विषय पर अपना मत प्रकट करते है, वैसे ही हमें 'A' या 'B' श्रेणी में विभक्त कर दिया जाता है | उदाहरण स्वरूप यदि मैं प्रितृसत्ता के पक्ष में अपना विचार रखूँ तो आप पूर्ण वक्तव्य को मुद्दे के आधार पर सुने या समझे बिना तुरंत मुझे पुरुष होने के कारण पक्षधर समझेगें इसीलिए मैंने मानवीय सम्वेदनाओं का उपरोक्त वर्णन, सत्ता पाने के समक्ष किया अर्थात कही वही बात परन्तु दोनों की कमी को मानवीय स्वभाव से निकाल कर की। वैसे यह गूँण विषय है और हमारी संस्कृति या भारतीय आध्यात्म या बिल्कुल साफ कहूं तो सनातन धर्म मे कई ऐसी रीतियाँ है जो सामाजिक रूप से तर्कहीन मानी गई क्यूंकि  शायद इन्हें बनाने वाले हमारे पूर्वजों  को यह ज्ञान था कि हम इनके गूढ़ अर्थो को समझने लायक योग्यता नहीं रखते। अब  विषय का प्रशन वही है कि जब हम यह नहीं समझते या समझने के योग्य नहीं  है तो आज के युग मे उनका विरोध क्यो कर रहे है ? उत्तर बिलकुल साफ है कि कालांतर में कई दूसरी सभ्यताएं हमने देखीं और उनकी सत्ता स्वीकार की जिंन्होने हमे प्रेरित किया ओर यह करने के लिए कई अन्य उपहार स्वरूप सुविधाएं दी या हमे मिली, जिसके अभीभूत होकर आज हम उन परम्पराओ की विशेषताओं को समझे बिना, सिर्फ उनकी कमियों को आधुनिक मान्यताओ के मद्देनजर उजागर करते है और उनका अपमान भी जाने-अनजाने कर देते है | यहाँ हम अपने मूलभूत सिद्धांत को भी नकार देते है जिसमें  पूर्वजों  का सम्मान निहित होता है। 

कृपया  विचार अवश्य करे।



लेखक 



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